Sunday, 14 January 2018

घर याद आता है..


ज़िन्दगी जीने के लिए ज़िन्दगी छोड़ आया हूँ...
चंद पैसे कमाने के लिए घर छोड़ आया हूँ....
एहसास तब हुआ जब घर से बहुत दूर निकल आया हूँ...
अपना घर छोड़ कर किराये के घर में रहने आया हूँ....
यही सोचता हुँ तो ये ख्याल आ जाता है...
आँखें बंद करता हुँ तो ये सवाल आ जाता है...
वो शहर कितना अलग है ये शहर कितना अलग है...
वहाँ की रात कितनी अलग है यहाँ की रात कितनी अलग है...
वो शहर भी आज कितना याद आता है...
जिस शहर की गलियों में मेरा घर आता है...
बच्चों का शोर और बहनों का प्यार याद आता है...
भैया की बात और भाभी का दुलार याद आता है...
जब भूक लगती है मुझे तो वो खाना याद आता है...
मेरी माँ के हाथो का छोटा सा निवाला याद आता है...
डांट मुझे लगती थी तो एहसास माँ को होता था...
चोट मुझे लगती थी तो दर्द माँ को होता था...
मुझे याद है जब पिताजी उस कड़कती धूप में काम करके आते थे...
कितना भी थक जाते मगर चेहरे पर थकान की सिकस्त तक न लाते थे...
आज हम थोड़ा सा काम करके कितना थक जाते हैं...
घर आते ही चैन की नींद सो जाते है...
अरे कैसी थी उनकी ज़िन्दगी कैसी है हमारी ज़िन्दगी...
वो धूप, ठण्ड, शर्द, बारिश को भी आराम से झेल जाते हैं...
और हम A.C  में बैठकर भी बीमार से हो जाते हैं...
उनकी राज में ज़िन्दगी कितनी शान होती थी...
मै कुछ कहु उससे पहले वो चीज़ मेरे पास होती थी...
उनके हिम्मत और जज़्बात को सलाम करते हैं...
ये ज़िन्दगी भी आज उनके नाम करते हैं....
इस प्यार इस ममता का एहसान कैसे चुका पाऊंगा....
लूँगा सात जन्म तो फिर भी ना उतार पाऊंगा...

आशीष गुप्ता

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