कामों के बोझ से कुछ यूँ फ़िसल सी गयी है...
फ्यूचर हमारा कुछ समझ नहीं आता...
नौकरी भी अब कुछ समझ नही आता...
दिल का हाल कुछ यूं हैं हमारा...
सुबह उठते ही घड़ी में बज जाते हैं बारह...
खाना बनाना है, रोटी भी बनाना है...
समय मिले तो झाडू भी लगाना है...
नहाना, खाना, तैयार होना कैसे-तैसे पूरा होता है...
ऑफिस का बस भी घर से 1km दूर होता है...
जाते-जाते ये ख्याल आ जाता है...
बस में बैठते ही स्कूल का दिन याद आ जाता है...
अब तो बस की हालत भी कुछ ख़राब सी होने लगी है...
बैठने को सीट नही, इतनी भीड़ जो होने लगी है...
लड़कियो ने सीट पर बैठने से मना कर रखा है...
ऐसा लगता है इन्होंने रिजर्वेशन करा रखा है...
फिर भी नए जोश के साथ सफ़र का आनंद लेते हैं...
कोई सैड सॉन्ग लगा कर कानों में एयर फ़ोन लगा लेते हैं...
गेट पर पहुँचते ही दिमाग में घंटा बज जाता है...
उतरकर देखते हैं तो चेकपोस्ट नज़र आता है...
फिर उतरना, फिर बस पकड़ना, इससे तंग आ गए हम...
एहसास होता है जैसे सेंट्रल जेल आ गए हम...
ऑफिस में कदम रखते ही दिमाग गर्म होने लगा...
अब तो नया जोश भी ठंडा होने लगा...
जो आते हैं ऑफिस उनसे मिलना भी एक नए पल का एहसास होता है...
चेहरे पर खुशी और हाथों से हाथों का मुलाक़ात होता है...
अब आते हैं कम पर तो ध्यान लगाना पड़ता है...
सीट पर बैठकर थोड़ा मूड बनाना पड़ता है...
काम का प्रेसर इतना ज़्यादा होता है...
बुलेटिन भी हमारा लगातार होता है...
हम सब काम भी करते हैं तो कुछ लोग आराम भी करते हैं...
काम को लेकर साथ में गेम भी करते हैं...
हालांकि काम तो करना ही पड़ता है...
साथ में डेली रिपोर्ट भी भरना ही पड़ता है...
सैलरी से ज़्यादा तो ये काम करवा लेते हैं...
काम कम ना किया हो लिखित में ये फॉर्म भी भरवा लेते हैं...
ऐसी तो है हमारी ज़िन्दगी, ऐसे तो हैं ऑफिस के रूल...
जितनी बहस होती है ऑफिस में, ऑफिस में ही जाते हैं भूल...
ऑफिस की ज़िन्दगी ऑफिस में छोड़कर कुछ ऐसा एहसास होता है...
जैसे कोई पंछी किसी पिंजड़े से, कुछ पल के लिए आज़ाद होता है...
आशीष गुप्ता
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