Monday, 26 February 2018

घर से ऑफिस...



आज कल ज़िन्दगी कुछ यूँ उलझ सी गयी है...
कामों के बोझ से कुछ यूँ फ़िसल सी गयी है...
फ्यूचर हमारा कुछ समझ नहीं आता...
नौकरी भी अब कुछ समझ नही आता...
दिल का हाल कुछ यूं हैं हमारा...
सुबह उठते ही घड़ी में बज जाते हैं बारह...
खाना बनाना है, रोटी भी बनाना है...
समय मिले तो झाडू भी लगाना है...
नहाना, खाना, तैयार होना कैसे-तैसे पूरा होता है...
ऑफिस का बस भी घर से 1km दूर होता है...
जाते-जाते ये ख्याल आ जाता है...
बस में बैठते ही स्कूल का दिन याद आ जाता है...
अब तो बस की हालत भी कुछ ख़राब सी होने लगी है...
बैठने को सीट नही, इतनी भीड़ जो होने लगी है...
लड़कियो ने सीट पर बैठने से मना कर रखा है...
ऐसा लगता है इन्होंने रिजर्वेशन करा रखा है...
फिर भी नए जोश के साथ सफ़र का आनंद लेते हैं...
कोई सैड सॉन्ग लगा कर कानों में एयर फ़ोन लगा लेते हैं...
गेट पर पहुँचते ही दिमाग में घंटा बज जाता है...
उतरकर देखते हैं तो चेकपोस्ट नज़र आता है...
फिर उतरना, फिर बस पकड़ना, इससे तंग आ गए हम...
एहसास होता है जैसे सेंट्रल जेल आ गए हम...
ऑफिस में कदम रखते ही दिमाग गर्म होने लगा...
अब तो नया जोश भी ठंडा होने लगा...
जो आते हैं ऑफिस उनसे मिलना भी एक नए पल का एहसास होता है...
चेहरे पर खुशी और हाथों से हाथों का मुलाक़ात होता है...
अब आते हैं कम पर तो ध्यान लगाना पड़ता है...
सीट पर बैठकर थोड़ा मूड बनाना पड़ता है...
काम का प्रेसर इतना ज़्यादा होता है...
बुलेटिन भी हमारा लगातार होता है...
हम सब काम भी करते हैं तो कुछ लोग आराम भी करते हैं...
काम को लेकर साथ में गेम भी करते हैं...
हालांकि काम तो करना ही पड़ता है...
साथ में डेली रिपोर्ट भी भरना ही पड़ता है...
सैलरी से ज़्यादा तो ये काम करवा लेते हैं...
काम कम ना किया हो लिखित में ये फॉर्म भी भरवा लेते हैं...
ऐसी तो है हमारी ज़िन्दगी, ऐसे तो हैं ऑफिस के रूल...
जितनी बहस होती है ऑफिस में, ऑफिस में ही जाते हैं भूल...
ऑफिस की ज़िन्दगी ऑफिस में छोड़कर कुछ ऐसा एहसास होता है...
जैसे कोई पंछी किसी पिंजड़े से, कुछ पल के लिए आज़ाद होता है...

आशीष गुप्ता

Thursday, 15 February 2018

तुम...


                 


तुम एक आवाज़ हो जो गूँजते हो हर किसी के धड़कन में...
तुम एक संगीत हो जो गुनगुनाते हो हर किसी के मन में...

तुम एक हवां का झोंका हो जो महसूस करते हैं खुद की साँसों में...
तुम एक गज़ल हो जो पढ़तें हैं हम हर रोज़ किताबों में...

तुम एक सच हो जो बोलता हूँ में हर रोज़ तुझे...
तुम एक ज़िन्दगी हो जो जीता हूँ हर रोज इसे....

तुम रोशनी हो उस शाम की जो जगमगाती है अंधियारों में...
तुम रोशनी हो उस रात की जो चमकती है हर सितारों में...

तुम छाया हो उस पेड़ की जो देती है आराम हमें...
तुम ख़ुश्बू हो उस बाग़ की जो महकती है हर शाम में...

तुम हकीक़त हो उस ख्वाब की जो दिखती है हर रोज मुझे...
तुम स्याही हो उस कलम की जो लिखता हूँ हर रोज़ तुझे...

आशीष गुप्ता

Thursday, 8 February 2018

बस यूं हीं....


अभी तो आयी हो हमारे पास
थोड़ा इंतजार करो न...

कुछ देर बैठो हमारे संग
थोड़ी बात करो ना...

यूँ जाकर करोगे भी क्या
कुछ सुनाओ हाल अपना, और थोड़ा प्यार करो ना...

हटाओ पर्दे शर्म हया के इन पलकों से
नज़रो को उठाओ और नैनों से वार करो ना...

यूँ मुस्कुराओं ना हमें देखकर ऐ मेरे हमराही
हम तो शरीफ़ हैं, हमें यूं हीं बदनाम करो ना...

अच्छा आओ चलते हैं दिल के आशियाने मेँ, देखो तुम कहाँ हो
अब तो ख़ुश हो, मन को यूं हीं उदास करो ना...

अच्छी लगती है मुझको चेहरे पे मुस्कान तुम्हारी
अब थोड़ा हँस भी दो, हमेँ यूं हीं परेशांन करो ना...

आशीष गुप्ता...

Friday, 2 February 2018

तेरी तस्वीर....


तेरी तस्वीर देखता हूँ तो, कुछ यूँ बयां करने का मन करता है...
तुम्हें देखते ही खुद को, भूल जाने का मन करता है...
वहीँ आँखे  हैं जिसे देखकर, डूब जाने का मन करता है...
वही चेहरा है जिसे देखकर, खो जाने का मन करता है....
वही होंठ है जिसे चूमकर, एहसास करने का मन करता है...
वही तुम हो जिसे देखकर, गले लगाने का मन करता है...
तुम्हें देखते ही दिल में आवाज़ सी आती है...
तुम्हें सोंचते ही मन में एक तस्वीर सी बन जाती है...
कोई तो बात है तेरी हर तस्वीर में...
कोई तो राज है तेरी हर तस्वीर में...
तुम दूर होकर भी मेरे पास आ जाती हो...
तस्वीर भेजकर मुझको-मुझसे ही चुरा जाती हो...
ये अंदाज भी तुम्हारा अच्छा लगा मुझे...
तेरा यूं बेक़रार रहना अच्छा लगा मुझे...
जब भी मै अकेला होता हुँ तो तू मेरे पास होती है...
तू ना सही तेरी तस्वीर मेरे साथ होती है....

आशीष गुप्ता

हर ख़्वाब हक़ीक़त हो जाए ...ये जरूरी तो नहीं... हर मोहब्बत पूरी हो जाए ...ये जरूरी तो नहीं... हम तुम्हें पसंद करतें हैं ...ये और बात है... त...